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Tuesday, December 17, 2013

क्या ईश्वर लालची है ...!

      क्या ईश्वर लालची है ! यह प्रश्न मेरे मन में अक्सर उठता रहता है।  जब मैं यह देखती -सुनती हूँ कि किसी ने अपनी मन्नत पूरी होने पर भगवान को बहुत सारा चढ़ावा चढ़ाया है या कोई कीमती वस्तु भेंट की  है। तो प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है ! जब ईश्वर से ही माँगना होता है तो उसे भेंट स्वरुप कोई वस्तु क्यूँ दी जाय।  क्या वह लालच में आ कर किसी  मन्नत पूरी करता है ? मुझे तो ऐसा लगता है कि  ईश्वर  प्रेम के वशीभूत हो कर ही इंसान की  पुकार सुनता है।
       मुझे याद है जब मेरा बड़ा बेटा अंशुमान  आठवीं कक्षा में था। जिस दिन उसका गणित की  परीक्षा थी। परीक्षा के बाद मेरे पास आया कि उसे रूपये चाहिए। वह ' बाला जी धाम '( हमारे शहर का प्रसिद्ध हनुमान जी का मंदिर ) में  प्रसाद चढ़ा कर आएगा। क्यूंकि उसने हनुमान जी से मन्नत मांगी थी कि पेपर अच्छा होने पर वह उनको प्रसाद चढ़ायेगा।  मैंने रूपये तो दिए क्यूंकि मन्नत जो मांगी थी। साथ ही समझाया भी कि ऐसे तो भगवान को रिश्वत देना ठीक नहीं है। अगर आपको श्रद्धा है तो भगवान से कहो कि मैं आपके मंदिर  धन्यवाद करने पैदल आऊंगा। मेहनत करने वालों का साथ भगवान् देते ही  हैं। वह समझ गया।
     लेकिन मेरे मन का प्रश्न तो ज्यों का त्यों ही है।एक तरफ तो  मंदिरों में लाखों -करोड़ों की भेंट चढ़ाते भक्त गण और वही दूसरी और मंदिर के बाहर एक -एक सिक्के के लिए तरसती -झपटती दीन -हीन लोगों की  भीड़  । तो क्या सच में ही ईश्वर प्रसन्न होता है यह सब देख कर।
    मेरे विचार से अगर अगर मन्नत का स्वरुप बदल दिया जाय। जैसे कोई साधन संपन्न मन्नत मांगने के बदले किसी मज़बूर कि कन्या का विवाह में सहायता कर दे , किसी मज़बूर के घर बनाने में सहायता करे या किसी भी जरूरत मंद की सहायता जैसे शिक्षा आदि में, और भी बहुत सारी सहायता हो सकती है। मुझे लगता है ऐसे में ईश्वर अधिक प्रसन्न होकर जल्दी मन्नत पूरी करेगा।


     जो कम समर्थ हो वह एक गुल्लक बना ले। जब भी मन्नत पूरी हो , कुछ रूपये उसमे डाल दे। एक साल बाद किसी जरूरतमंद को दे दें। मैं तो ऐसे ही करती हूँ। जब  मन्नत मांगनी होती है तो 21सुन्दरकाण्ड या 21दुर्गा सप्तशती के पाठ या 108 हनुमान चालीसा या 108 शिव चालीसा के पाठ बोलती हूँ।  फिर जितने पाठ करती जाती हूँ उतनी ही कुछ धन राशि  गुल्लक में डालती जाती हूँ। वर्ष के अंत में किसी भी जरुरी व्यक्ति को दे देती हूँ। जब हम  भगवान से मांगते  हैं तो थोड़ा कष्ट हमें  भी तो उठाना चाहिए। 
      अंशुमान के जज बनने की मन्नत मैने मांगी थी कि जज बन जायेगा तो एक बच्चे की स्कूल की फीस भर दिया करूँगी और अब ऐसा करती भी हूँ.
 ऐसा करने पर  ईश्वर बहुत अधिक प्रसन्न होगा। वह कतई लालची नहीं है। आखिर नेकी और भलाई का फल तो मिलता ही है।